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दक्षि॑णावता॒मिदि॒मानि॑ चि॒त्रा दक्षि॑णावतां दि॒वि सूर्या॑सः। दक्षि॑णावन्तो अ॒मृतं॑ भजन्ते॒ दक्षि॑णावन्त॒: प्र ति॑रन्त॒ आयु॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dakṣiṇāvatām id imāni citrā dakṣiṇāvatāṁ divi sūryāsaḥ | dakṣiṇāvanto amṛtam bhajante dakṣiṇāvantaḥ pra tiranta āyuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दक्षि॑णाऽवताम्। इत्। इ॒मानि॑। चि॒त्रा। दक्षि॑णाऽवताम्। दि॒वि। सूर्या॑सः। दक्षि॑णाऽवन्तः। अ॒मृत॑म्। भ॒ज॒न्ते॒। दक्षि॑णाऽवन्तः। प्र। ति॒र॒न्ते॒। आयुः॑ ॥ १.१२५.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:125» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:10» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर चारों वर्णों में स्थिर होनेवाले मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (दक्षिणावताम्) जिनके धर्म से इकट्ठे किये धन, विद्या आदि बहुत पदार्थ विद्यमान हैं, उन मनुष्यों को (इमानि) ये प्रत्यक्ष (चित्रा) चित्र-विचित्र अद्भुत सुख (दक्षिणावताम्) जिनके प्रशंसित धर्म के अनुकूल धन और विद्या की दक्षिणा का दान होता, उन सज्जनों को (दिवि) उत्तम प्रकाश में (सूर्य्यासः) सूर्य्य के समान तेजस्वी जन प्राप्त होते हैं (दक्षिणावन्तः) बहुत विद्या-दानयुक्त सत्पुरुष (इत्) ही (अमृतम्) मोक्ष का (भजन्ते) सेवन करते और (दक्षिणावन्तः) बहुत प्रकार का अभय देनेहारे जन (आयुः) आयु के (प्रतिरन्ते) अच्छे प्रकार पार पहुँचे अर्थात् पूरी आयु भोगते हैं ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - जो ब्राह्मण सब मनुष्यों के सुख के लिये विद्या और उत्तम शिक्षा का दान, वा जो क्षत्रिय न्याय के अनुकूल व्यवहार से प्रजा जनों को अभय दान, वा जो वैश्य धर्म से इकट्ठे किये हुए धन का दान और जो शूद्र सेवा दान करते हैं, वे पूर्ण आयुवाले होकर इस जन्म और दूसरे जन्म में निरन्तर आनन्द को भोगते हैं ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनश्चतुर्वर्णस्थाः किं कुर्युरित्याह ।

अन्वय:

दक्षिणावतां जनानामिमानि चित्राऽद्भुतानि सुखानि दक्षिणावतां दिवि सूर्य्यासः प्राप्नुवन्ति दक्षिणावन्त इदेवामृतं भजन्ते दक्षिणावन्त आयुः प्रतिरन्ते प्राप्नुवन्ति ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दक्षिणावताम्) धर्मोपार्जिता धनविद्यादयो बहवः पदार्था विद्यन्ते येषां तेषाम् (इत्) एव (इमानि) प्रत्यक्षाणि (चित्रा) चित्राण्यद्भुतानि (दक्षिणावताम्) प्रशंसितयोर्धर्म्यधनविद्ययोर्दक्षिणा दानं येषां तेषाम्। प्रशंसायां मतुप्। (दिवि) दिव्ये प्रकाशे (सूर्यासः) सवितार इव तेजस्विनो जनाः (दक्षिणावन्तः) बहुविद्यादानयुक्ताः (अमृतम्) मोक्षम् (भजन्ते) (दक्षिणावन्तः) बह्वभयदानदातारः (प्र) (तिरन्ते) संतरन्ति (आयुः) प्राणधारणम् ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - ये ब्राह्मणाः सार्वजनिकसुखाय विद्यासुशिक्षादानं, ये च क्षत्रिया न्यायेन व्यवहारेणाभयदानं, ये वैश्या धर्मोपार्जितधनस्य दानं, ये च शूद्राः सेवादानं च कुर्वन्ति ते पूर्णायुषो भूत्वेहामुत्रानन्दं सततं भुञ्जते ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे ब्राह्मण सर्व माणसांच्या सुखासाठी विद्या व उत्तम शिक्षणाचे दान देतात, जे क्षत्रिय न्यायानुकूल व्यवहाराने प्रजेला अभयदान देतात, जे वैश्य धर्माने संग्रहित केलेले धन दान करतात व जे शूद्र सेवा दान देतात ते पूर्ण आयुष्य भोगून या जन्मी व पुढच्या जन्मी निरंतर आनंद भोगतात. ॥ ६ ॥